खुले कपड़ों में बैठ, एक रात चाँद ओढ़ सोना है..
आरजुओं की क़िताब में एक गीला पन्ना भिगोना है..
इन ऊंची इमारतों के बीच, ज़मीं पर
कहीं एक छोटा कोना मिल जाये..
उसी छोटे कोने को
धूप के तिनकों से संजोना है...
"बड़ा"- जिसे दुनिया बड़ा कहती है
वो पैसों से नहीं होता
कल उठूंगा दोपहर, तो
शायद भूल चुका होऊंगा...
कल फिर दिन भर पसीने में लिपटकर
अपने तंग हालातों को रोऊंगा...
रात फिर आएगी चाँदनी की रजाई पसारे,
रात फिर बैठ, चाँदी दोनों हाथों से संजोऊंगा..
अजीब कुदरत है मालिक, दिन मिट्टी - रात "सोना" है
खुले कपड़ों में बैठ, फ़िर एक रात, चाँदनी संजोना है...